बहुभागीय पुस्तकें >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
सात
आनन्द सागर आश्रम में पहुंचकर राम ने जो देखा, वह उनके लिए सर्वथा अनपेक्षित था। पिछली बार जब वे इस आश्रम में आए थे, तो यहां कितना उत्साह था; और आज घोर हताशा। जैसे राम के आने की भी उन्हें कोई प्रसन्नता नहीं हुई। केवल मुखर उनसे आकर ऐसे मिला, जैसे वर्षों पश्चात् उसने अपने किसी प्रिय व्यक्ति को देखा हो। उसने उत्साहपूर्वक सबके ठहरने की व्यवस्था की। अन्य आश्रमों के समान उन्हें यहां आते ही, कुटीरों की व्यवस्था नहीं करनी पड़ी। मुखर ने पहले से ही व्यवस्था कर रखी थी।
शस्त्रों को, शस्त्रागार में स्थापित कर, राम कुछ निश्चिंत हो, बाहर आ बैठे। सीता, लक्ष्मण तथा मुखर भी वहीं आ गए। आनन्द सागर तथा भीखन कदाचित् उनके अवकाश पा जाने की ही प्रतीक्षा कर रहे थे।
"हां मुखर!" राम ने पूछा, "क्या स्थिति है?"
"कोई विशेष घटना यहां नहीं घटी, इसका अनुमान तो आपने लगा ही लिया होगा।" मुखर बोला, "कुछ घटित हुआ होता तो आपको सूचना मिलती ही। किंतु, मेरी समझ में नहीं आता कि यहां के लोग किस मिट्टी के बने हैं। पिछली बार, आपके जाने के पश्चात् राक्षसों की सैनिक टुकड़ी ने आक्रमण क्या किया कि अब प्रत्येक मुख पर एक ही बात है-हमारे कुछ भी करने से क्या होगा? राक्षस फिर आएंगे और लूट-पाट कर ले जाएंगे। पिछली बार तो वे लोग यहां ठहरे ही नहीं; यदि अधिक ठहर गए तो हत्याएं भी करेंगे...!"
"यही बात है भीखन?" राम ने पूछा।
"ऐसा ही हो गया है राम!" भीखन का स्वर भी पर्याप्त निरुत्साहित था, "कितना भी प्रयत्न करो, उत्साह नहीं जागता। मेरा मन भी कुछ उदासीन-सा हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति पूछता है कि राम यहां कब तक
रहेंगे, कब तक राक्षसों से लड़ेंगे? अंत में चले ही जाएंगे, फिर हम होंगे और ये राक्षस। राक्षस दंडक वन में हैं, पंचवटी में हैं, लंका में हैं। उनकी सेनाएं आएंगी और हमें पैरों तले रौंद जाएंगी, फिर उनके विरोध का क्या लाभ? हम जितना बैर बढ़ाएंगे, अंत में उतना ही कष्ट पाएंगे। उनकी स्पर्धा हम कर नहीं पाएंगे।"
"और आप क्या कहते हैं, मुनि आनन्द सागर?"
"मुझे क्या कहना है भद्र!" आनन्द सागर ठहरे हुए शांत स्वर में बोले, "सचमुच राक्षसों के पिछले आक्रमण से इस क्षेत्र में बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ा है।"
"भूधर की भूमि का आप लोगों ने क्या किया है?" राम ने पूछा।
"कुछ नहीं। वैसी ही पड़ी है।" भीखन ने बताया, "उस भूमि पर कोई हल चलाने का साहस ही नहीं करता। मान लीजिए, आज हम उस पर खेती आरंभ करते हैं और कल ग्राम पर राक्षसों का आक्रमण होता है तो वे खेतों में खड़ी फसल जला जाएंगे या काटकर ले जाएंगे; और उस भूमि पर नियंत्रण करने के अपराध में हत्याएं अलग कर जाएंगे।"
"तो तुम्हें गांव की भूमि भी नहीं चाहिए?" मुखर जैसे चकित होकर बीच में ही फूट पड़ा।
"राक्षसों की भूमि नहीं चाहिए।"
"वह भूमि राक्षसों की नहीं, तुम्हारी है।" लक्ष्मण कुछ आवेश के साथ बोले।
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